Wednesday, September 3, 2014

ससुराल जाती ध्याण और नंदादेवी राजजात



ससुराल जाती ध्याण और नंदादेवी राजजात यात्रा

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बेटी ... को जब ध्याण कह कर पुकारते है तो कितना, स्नेह, लगाव, सम्मान दिल में उमड़ पड़ता है कि आंसू छलछला आते हैं आँखों में ...बेटी अपनी आत्मीय, अपनी आत्मा का टुकड़ा जो रीतिरिवाजों से जुड़ी, सामाजिक दायित्व में बंधी अपने घर अपने बचपन से दूर पहाड़ की कठिन दिनचर्या में ससुराल में कैसे दिन बिताती है कि मायके के लोग उसकी विदाई में रो पड़ते हैं ..ध्याण मतलब विवाहित बेटी ... ब्याह कर दुसरे मुल्क गयी बेटी ... माँ पिता भाई बहन और गाँव वालों की ध्याण ... स्नेह का प्रतीक ... सब जानते है वह ससुराल में कितनी ही पहाड़ जैसी जिम्मेदारियों के बीच खुद का ख्याल नहीं रख पाती होगी ... जब आती है वह मायके तो उसे आराम और सबका स्नेह मिलता है ..गाँव वाले भी आदर सत्कार करते है .. भोजन पे बुलाते है अपने घरो में ... भेंट समोण देते है ... ससुराल जाती है तो जो भी हो सकता है, बेटी को देते है पकवान बनाते है उसके लिए... उसके ससुराल एक डाल्ली ( रिंगाल की टोकरी )जाती है जिसमे गुड़ से बने स्वादिष्ट रौठ, आरसे होते है | पहले सारा गाँव उसकी विदाई में रो पड़ता था और जहाँ जहाँ जहाँ से ध्याण गुजरती थी रास्ते के लोग रो पड़ते थे .... ध्याण भी तो पूरी आवाज के साथ विलाप करते थकती नहीं बल्कि बीच बीच में उसे रोते रोते चक्कर भी आते थे ..पूरी वादी में उसकी रोने की आवाज गूंजती थी लोग रोते हुए उसे आश्वासन देते थे जा बुबा नी रो ..फिर बुलायेंगे तुझे तू फिर आएगी .... कितना कठिन था उस वक्त पहाड़ का जीवन बर्फीले पहाड़ों में आग पानी की व्यवस्था करती ससुराल में बेटी लकड़ी काटती, जंगल जाती, गाय भेंस की देखभाल, खेतो का काम, घर का काम, सबकी देखभाल करती हुई और खुद को भूली जाती थी ..बस तभी तो पहाड़ के गीतों में बेटी का अपने घर माँ पिता और गाँव को याद करने का दर्द बसा है, हालांकि आज विकास के दौर में बिजली, रसोई गेस, मोटर व् सड़कें, मॊबाइल आदि ने इन कठिनाइयों और दूरियों को कम किया है .... पहाड़ में नंदा देवी जो ध्याण है पहाड़ की, हर बारह साल में आज भी उस बेटी का मायके आना और उसके साथ दूर तक उसे ससुराल भेजने जाना, और बरबस ही सबका बेटी बहन नंदा को विदा करते हुए रो पड़ना ... बेटी के लिए प्रेम का प्रतीक और बेटी से की प्रतिज्ञा का निर्वहन है, नंदादेवी राजजात पहाड़ की परम्परा है, रिश्तों में आस्था का द्योतक है ... आज जहां समाज में महिला का जीवन कोख से ले कर कफ़न तक असुरक्षित लग रहा है वहां रिश्तों में आस्था, स्नेह और सम्मान की यह यात्रा निसंदेह समाज को एक महिला के प्रति सकारात्मक सोच का सन्देश देगी| ................ यही नहीं इस यात्रा के मार्ग पर गाँव के लोग आज भी अथिति देवो भवः की तर्ज पर यात्रियों की सेवा करते दिखते है.. ३० अगस्त को बस्ती को छोड़ आखिरी गाँव वाण जो कि आखिरी ग्रामीण पड़ाव है वहां से यात्रा सूदूर दुर्गम चढ़ाइयों में निर्जन पहाड़ियों से गुजरते हुए कल कठिनतम मार्ग ज्यूँरा गली को पार कर गयी ... आज होमकुंड में पूजा अर्चना कर नंदा को इस यात्रा की अंतिम विदाई दे कर श्रद्धालु और यात्रीगण वापसी की ओर कूच कर जायेंगे ...| यात्रा की सफलता और यात्रियों के खुशहाली के लिए जागर की ये पंक्तियाँ



सुफल ह्वेजाया नंदा तुमारी

जातरा तुमारा नौ कू आज कारजे उरायो.....

धन्य उत्तराखंड म्यरो

धन्य गढ कुमाऊं देश

धन्य देव भूमि म्येरी

धन्य मातृ भूमि म्येरी

धन्य धन्य होया आज सो नन्दा घुंघुटी ............... डॉ नूतन डिमरी गैरोला

3 comments:

  1. प्रकृतिं के साथ मानव मन का यह जुड़ाव दर्शनीय है...सुंदर पोस्ट !

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